भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रेत पर चमकती / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:32, 2 जून 2010 का अवतरण
रेत पर चमकती मणियाँ
रह-रह कर मुझे लुभाती हैं,
पर मैं ज्यों ही उन्हें उठाने को झुकता हूँ
वे हवा में ओझल हो जाती हैं;
सच कहूं तो
यहाँ न रेत है, न मैं हूँ, न मणियाँ हैं,
केवल सन्नाटे में गूँजती ध्वनियाँ हैं.