Last modified on 4 जून 2010, at 05:37

गर सारे परिंदों को / कविता किरण

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:37, 4 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता किरण |संग्रह= }}{{KKVID|v=1mEfMtvfuv8}} {{KKCatKavita}} <poem> गर सारे प…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें

गर सारे परिंदों को पिंजरों में बसा लोगे
सहरा में समंदर का फ़िर किससे पता लोगे

ये सोच के हम भीगे पहरों तक बारिश में
तुम अपनी छतरी में हमको भी बुला लोगे

इज़हारे-मुहब्बत की कुछ और भी रस्में हैं
कब तक मेरे पांवों के कांटे ही निकालोगे

सूरज हो, रहो सूरज,सूरज न रहोगे ग़र
सजदे में सितारों के सर अपना झुका लोगे

रूठों को मनाने में है देर लगे कितनी
दिल भी मिल जायेंगे ग़र हाथ मिला लोगे

आसां हो जायेगी हर मुश्किल पल-भर में
ग़र अपने बुजुर्गों की तुम दिल से दुआ लोगे