भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारी यादें / मदन कश्यप

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:31, 5 जून 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं भूलती है
जेठ की पहली बारिश के बाद
अकुलायी धरती से उठने वाली
वह सोंधी-सोंधी-सी गंध
नदियों, पहाड़ों और जंगलों को पार करते हुए
जाने कैसे चली आती है मुझ तक
और खिच्चे दानों में भरते दूध की तरह
मेरी आत्मा में भरती चली जाती है

कोयले की गर्द
और चिमनियों के विषाक्त धुएँ से भरे वायुमंडल में
जाने कैसे जीवित बच आती है वह गंध

भले ही हाथों में
धनरोपती के कीचड़ की जगह
ग्रीस और मोबिल लगते हैं
आँखें अब भी देखती हैं
लहलहाती फसलों का सपना

नहीं भूल पाता हूँ तुम्हें

ऊँची चिमनियों और गहरी खदानों की
सँप-सीढ़ियों वाली इस औद्योगिक नगरी में
हमें हलाल करने के लिए
माफिया और दलाल ही नहीं
क्रांति की बातों से बातों की क्रांति करने वाले
श्रमिक-नेताओं के भ्रमजाल भी हैं
और इनके बीच
मछेरे की हाँड़ी में कैद मछली-सा छटपटाता
गंवई-गांव का मेरा मन
बिछड़े तालाब की तरह लगातार तुम्हें याद करता रहता है

कभी भी तो नहीं भूल पाता हूँ तुम्हें
मक्के ही हरी बाल के खिच्चे दानों जैसी
तुम्हारी धवल दंतपंक्तियों से
झड़ने वाली उजली-उजली हँसी
अभी भी मेरी नींद में थिरकती है
आषाढ़ की बारिश में उपजे मोथे की जड़ों-सी मीठी
तुम्हारी यादें
गठिबंध सरीखी मेरी आत्मा से लिपटी हैं!