इस सदी के अंत पर / मुकेश मानस
इस सदी के अंत पर
जी में आता है
कि लड़कियों को चहचहाते हुए
और लड़कों को नाचते हुए देखूं
जो भी मेरे करीब से गुज़रे
उसे प्यार भरा सलाम कहूं
जी में आता है
कि कहीं खुले में खड़े होकर
हवा की पावन थपकियों को महसूस करूं
और उसकी मन भावन तान को
शब्दों की गहराइयों में ले आऊं
जी में आता है
कि ठूंठ बनते जा रहे पेड़ों से
लिपट-लिपट कर रोऊं
और जमीन पर गिरे पत्तों को
चूम-चूमकर
अपने दिल में सजा लूं
जी में आता है
कि पहाड़ों को देखने निकल जाऊं
उनसे बेझिझक बातें करूं
उनकी अथाह घाटियों में
मौहब्बत की उफंचाई का पयाम
बिखरा दूं
जी में आता है
कि बाजार बनती जा रही दुनिया में
खरीदारी पर निकले आदमी के लिए
उन चीजों की सूची बनाऊं
जिनकी खरीद-फ़रोख्त हो नहीं सकती
जैसे देश और मां और प्यार
जी में आता है
कि काम से लौटे घोड़ों के पास जाऊं
उनके घावों को सहलाऊं
दर्द भरा कोई गीत
उनके साथ मिलकर गाऊं
और उनके दिल के किसी कोने में
आशा की किरण बन जाऊं
रचनाकाल:1999