यह आख़िरी रात है / कर्णसिंह चौहान
दख़ल हो चुका है शहर
कालीन पर फैले शब्दों को समेटो
किले और कविता के मेल की
यह आख़िरी रात है ।
रह गए की माया छोड़
फिलहाल इस जंगल में छुप जाओ
यहाँ बुझी आदिम राख में
अभी पहले गीत की महक है
जंग लगे शब्दों को
खुली हवा में सुखाओ
कवच और तमगे हटा
निर्वसन पड़े रहने दो
उनमें कुख हरापन भर जाए
जंगल का राग
थोड़ी आग
सरसराहट, साँय-साँय
हलचल से भाग
कविता में जीवन बचाने की
यह आख़िरी रात है ।
अंधेरे का रोना छोड़
फिलहाल पकड़ी नदी का यह पाट
शब्दों को उसकी धार में
बिखेर दो
घुल जाए कालिख
छुटे मैल
भर जाए कलकल
तरंग
प्रवाह
इस पत्थर की सान पर घिस
तैयार करो
दफ़्तर के सींखचों से बाहर
कविता को लाने की
यह आख़िरी रात है ।
कितना कहा सभी ने
दरबार नहीं है कविता का घर
कुर्सी नहीं है कवि का आसन
बाज़ार की भीड़ में
गश्त लगाती है वह
ज़रुरी हो तो
जंगल का पेड़
पहाड़ का पत्थर
नदी का प्रवाह
बादल का पंख
बर्फ़ का फ़ाहा बन
शहर में आती है वह
कबूतर के उजले पर हैं ये शब्द
उजास और पावन
बोझ नहीं सहते
बंधक नहीं रहते
घोंसला जल गया तो
आकाश में उड़ो
भर जाए नीलिमा
बहती बयार
विस्तार
वहीं बादलों के ऊपर
इंतज़ार करो
नगर पर निशाना साधने की
यह आख़िरी रात है ।
चीड़ों पर बारिश
चीड़ वनों पर बारिश हो रही है
घुंघराले बालों से बूँद-बूँद
टपक रहा पानी
छरहरे तनों पर बारिश हो रही है
तन के पहाड़ों वादियों से
चू रहा मेह।
तराशी बाहें परस्पर लिपटी
एक दूसरे की छाती में
छिपे बदन
रिमझिम हँसी पूरे जंगल में छिटक गई है ।
उमंगे नाच रहीं
पास के तरवर में ।
रास्ता बनाती यह सड़क
फिसल कर उठेगी
घने बियाबन में छिप जाएगी
वहाँ घोंसलों में कँपते सिकुड़े
शावक
अपलक विहार रहे हैं
ख़ूबसूरत देवदारु का छालहीन तना
कितना भूरा निकल आया हैं
चीड़ वनों पर बारिश हो रही है ।
फूत्कार से गुंजायमान
यह नीरव प्रदेश
सौरभ से महक रहा है
कटीली भवों सा खिंच आया इंद्रधनु
उधर ऊपर
शायद कोई गिरजा है
शायद कोई गुफ़ा
वहाँ कुछ हो रहा है
लाल सूरज
बादलों की ओट में झूल गया है
और जंगल धू-धू कर जल उठा
आओ इन फूलों को चुनकर
नीचे उतर चलें ।
साथ-साथ
य’ राग सम प’ आ गया है
बतियाते चलने लगे हैं कदम
शहर में बिखर गई धूप
बादल तक गोरा रंग छा गया है ।
सड़क की सूनी गोद भरी
तार झनझनाए
यहां हवा में कहवा की महक है
मैं यू’ ही बैठा हूं
तुम, लौट आओ ।
पगडंडी तकते गुजर गई
कई शाम
तालाब कब से पुकार रहा है
यहां भी ठीक है
लेकिन वहीं चलो
यह महक कब से सूना है
इसे भरो ।
यह चांदनी में घुल गया
हर रंग
ये फूल उन्मुक्त खिल रहे हैं
इनकी पंखुडियों को भरे हैं
कोयल
ये सीपी धीरे से खूल रही हैं
चांदनी में चमका मोती
और संग्मरमर पर तराशे निशान
सुबह के सूरज की आभा में
रक्तिम हो उठे हैं
कितने सुख की नींद जागा हैं
कमलदल
कि उसी क्षण टपकी है
ओस की कनी
यह पूरी बरफ़ पिघल गई है।
चू गई सहमकर
बारिस की बूंद
सारी धर शावकों के शोर से भर गई है
उठो
पूरा परिवेश बदल गया है
सारस का यह जोड़ा
पहाड़ के वक्ष पर आसीन
बिला गए हैं दिन-रात
देश-परदेश
रंग और राग
केवल मौन
और मौन में आग
सपाट हो गया शहर
स्मृति में भरा ऐंठा है ।
यह कहानी किस्सा बन गई है
यह पहाड़ी साक्षी
और बगीचा प्रमाण
उस जन्म में ये यहीं थे ऐसे ही
सिर झुकाए वह बग्गीवान
सच को भुला रहा है ।
अगवानी में घिर रहे हैं मेघ
बरस रहा पानी
मुझमें वैसे ही छिप जाओ
चीड़ का घेरा बस इतना है ।
अब निकलो यहां से
उस सुदूर झील की ओर
कथा के सब जासूस
वैसे ही चौकस हैं
इन्हें मत देखो
ये उस जन्म के परिचित है ।
यहीं मरे थे हम
बचा नही पनाह देने वाला वह बूढ़ा भी
और वह मोनास्तर
इसलिए जल्दी करो
भरो लंबी उसांस
मानसरोवर झील तक
भले ही हादसे भरा हो उसका किनारा
वह
धरती आकाश तक फैला है
वहां कितना पावन है मन
चलो वहीं चलें ।
डविल्स थ्रोट
खेल रही है नदी
भंवरो में
चक्कर काट रही है नदी
खेल में दिपती
दो खंजन आंखें
भंवों के इशारे पर
खांडे की धार नापते पांव
बुला रही है नदी ।
बाहर भीतर अनहद
घुप्प अंधेरे में
छू रही है नदी ।
जो भी यहां आया
डूबा
कभी मिला नहीं ।
ऊँचे पहाड़ के बंद उदर में
गरजती हो तुम
गर्जते हैं सौ पहाड़
ग्रीस का सीना सीमा पार
पत्थरों पर खुदे हैं
तुम्हारी बलि चढ़े नाम
पर्यटक आते हैं
पढ़ने, सुनने
तुम्हारे लेख
तुम्हारे स्वर
तुम्हीं में समाने ।
वे आते हैं
चहकते
खेलते
और डूबकर जाते हैं
अकेले
अस्तित्वहीन
फिर भी बार-बार आते हैं ।
गाबरोवो
एक दूसरे से ऊबे
अहमन्यता शराब के नशे में डूबे
लोगों को हंसाता है
गाब रोवो ।
हंसी की खातिर
गावदू बन जाते हैं
यहां के लोग
अपनी मूर्खता के किस्से
खुशी-खुशी सबको
सुनाते हैं
यहां के लोग
हंसता है पूरा देश
हंसता है यूरोप
अपनी बेहूदगियों का
हर वर्ष
त्यौहार मनाता है
गाबरोवो ।
क्या सचमुच ऐसे हैं
इस नगर के वासी ?
खूब बनाते
फैलाते
नए-नए किस्से
किताबें छपवाते हैं ।
उर्वर है कल्पना
शीत से ठिठुरी धरती पर
उजली हंसी का वसंत
खिलाता है
गाबरोवो ।
कितना बड़ा जिगरा
जुटते हैं उत्सव में
दुनिया के बेजोड़ हंसोड़
छोड़ते पैने तीर
खुशी में मगन
सुनता पूरा शहर
संकीर्णता का सारा बोध
मिटाता है
गाबरोवो ।