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अविच्छिन्न / सुमित्रानंदन पंत
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हे करुणाकर, करुणा सागर!
क्यो इतनी दुर्बलताओं का
दीप शून्य गृह मानव अंतर!
दैन्य पराभव आशंका की
छाया से विदीर्ण चिर जर्जर!
चीर हृदय के तम का गह्वर
स्वर्ण स्वप्न जो आते बाहर
गाते वे किस भाँति प्रीति
आशा के गीत प्रतीति से मुखर?
तुम अपनी आभा में छिपकर
दुर्बल मनुज बने क्यों कातर!
यदि अनंत कुछ इस जग में
वह मानव का दारिद्रय भयंकर!
अखिल ज्ञान संकल्प मनोबल
पलक मारते होते ओझल,
केवल रह जाता अथाह नैराश्य,
क्षोभ संघर्ष निरंतर!
देव पूर्ण निज रुपों में स्थित
पशु प्रसन्न जीवन में सीमित,
मानव की सीमा अशांत
छूने असीम के छोर अनश्वर!
एक ज्योति का रूप यह तमस
कूप वारि सागर का अंभस्
यह उस जग का अंधकार
जिसमें शत तारा चंद्र दिवाकर!