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कालीबंगा: कुछ चित्र-13 / ओम पुरोहित ‘कागद’

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सूरज
फिर तपा है
चमका है
धरा का कण-कण
कालीबंगा के थेहड़ में

नहीं ढूँढता छाँह
तपती धूप में
न कोई आता है
न कोई जाता है

है ही नहीं कोई
जो तानता
धूप में छाता

वो देखो
चला गया
पूरब से पश्चिम
थेहड़ को लांघता
सूरज।


राजस्थानी से अनुवाद : मदन गोपाल लढ़ा