बुद्ध और नाचघर (कविता) / हरिवंशराय बच्चन
"बुद्धं शरणं गच्छामि,
ध्म्मं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि।"
बुद्ध भगवान,
जहाँ था धन, वैभव, ऐश्वर्य का भंडार,
जहाँ था, पल-पल पर सुख,
जहाँ था पग-पग पर श्रृंगार,
जहाँ रूप, रस, यौवन की थी सदा बहार,
वहाँ पर लेकर जन्म,
वहाँ पर पल, बढ़, पाकर विकास,
कहाँ से तुम्में जाग उठा
अपने चारों ओर के संसार पर
संदेह, अविश्वास?
और अचानक एक दिन
तुमने उठा ही तो लिया
उस कनक-घट का ढक्कन,
पाया उसे विष-रस भरा।
दुल्हन की जिसे पहनाई गई थी पोशाक,
वह तो थी सड़ी-गली लाश।
तुम रहे अवाक्,
हुए हैरान,
क्यों अपने को धोखे में रक्खे है इंसान,
क्यों वे पी रहे है विष के घूँट,
जो निकलता है फूट-फूट?
क्या यही है सुख-साज
कि मनुष्य खुजला रहा है अपनी खाज?
निकल गए तुम दूर देश,
वनों-पर्वतों की ओर,
खोजने उस रोग का कारण,
उस रोग का निदान।
बड़े-बड़े पंडितों को तुमने लिया थाह,
मोटे-मोटे ग्रंथों को लिया अवगाह,
सुखाया जंगलों में तन,
साधा साधना से मन,
सफल हुया श्रम,
सफल हुआ तप,
आया प्रकाश का क्षण,
पाया तुमने ज्ञान शुद्ध,
हो गए प्रबुद्ध।
देने लगे जगह-जगह उपदेश,
जगह-जगह व्याख्यान,
देखकर तुम्हारा दिव्य वेश,
घेरने लगे तुम्हें लोग,
सुनने को नई बात
हमेशा रहता है तैयार इंसान,
कहनेवाला भले ही हो शैतान,
तुम तो थे भगवान।
जीवन है एक चुभा हुआ तीर,
छटपटाता मन, तड़फड़ाता शरीर।
सच्चाई है- सिद्ध करने की जररूरत है?
पीर, पीर, पीर।
तीर को दो पहले निकाल,
किसने किया शर का संधान?-
क्यों किया शर का संधान?
किस किस्म का है बाण?
ये हैं बाद के सवाल।
तीर को पहले दो निकाल।
जगत है चलायमान,
बहती नदी के समान,
पार कर जाओ इसे तैरकर,
इस पर बना नहीं सकते घर।
जो कुछ है हमारे भीतर-बाहर,
दीखता-सा दुखकर-सुखकर,
वह है हमारे कर्मों का फल।
कर्म है अटल।
चलो मेरे मार्ग पर अगर,
उससे अलग रहना है भी नहीं कठिन,
उसे वश में करना है सरल।
अंत में, सबका है यह सार-
जीवन दुख ही दुख का है विस्तार,
दुख की इच्छा है आधार,
अगर इच्छा को लो जीत,
पा सकते हो दुखों से निस्तार,
पा सकते हो निर्वाण पुनीत।
ध्वनित-प्रतिध्वनित
तुम्हारी वाणी से हुई आधी ज़मीन-
भारत, ब्रम्हा, लंका, स्याम,
तिब्बत, मंगोलिया जापान, चीन-
उठ पड़े मठ, पैगोडा, विहार,
जिनमें भिक्षुणी, भिक्षुओं की क़तार
मुँड़ाकर सिर, पीला चीवर धार
करने लगी प्रवेश
करती इस मंत्र का उच्चार :
- "बुद्धं शरणं गच्छामि,
- ध्म्मं शरणं गच्छामि,
- संघं शरणं गच्छामि।"
कुछ दिन चलता है तेज़
हर नया प्रवाह,
मनुष्य उठा चौंक, हो गया आगाह।
वाह री मानवता,
तू भी करती है कमाल,
आया करें पीर, पैगम्बर, आचार्य,
महंत, महात्मा हज़ार,
लाया करें अहदनामे इलहाम,
छाँटा करें अक्ल बघारा करें ज्ञान,
दिया करें प्रवचन, वाज़,
तू एक कान से सुनती,
दूसरे सी देती निकाल,
चलती है अपनी समय-सिद्ध चाल।
जहाँ हैं तेरी बस्तियाँ, तेरे बाज़ार,
तेरे लेन-देन, तेरे कमाई-खर्च के स्थान,
वहाँ कहाँ हैं
राम, कृष्ण, बुद्ध, मुहम्मद, ईसा के
कोई निशान।
इनकी भी अच्छी चलाई बात,
इनकी क्या बिसात,
इनमें से कोई अवतार,
कोई स्वर्ग का पूत,
कोई स्वर्ग का दूत,
ईश्वर को भी इनसे नहीं रखने दिया हाथ।
इसने समझ लिया था पहले ही
ख़दा साबित होंगे ख़तरनाक,
अल्लाह, वबालेजान, फज़ीहत,
अगर वे रहेंगे मौजूद
हर जगह, हर वक्त।
झूठ-फरेब, छल-कपट, चोरी,
जारी, दग़ाबाजी, छोना-छोरी, सीनाज़ोरी
कहाँ फिर लेंगी पनाह;
ग़रज़, कि बंद हो जाएगा दुनिया का सब काम,
सोचो, कि अगर अपनी प्रेयसी से करते हो तुम प्रेमालाप
और पहुँच जाएँ तुम्हारे अब्बाजान,
तब क्या होगा तुम्हारा हाल।
तबीयत पड़ जाएगी ढीली,
नशा सब हो जाएगा काफ़ूर,
एक दूसरे से हटकर दूर
देखोगे न एक दूसरे का मुँह?
मानवता का बुरा होता हाल
अगर ईश्वर डटा रहता सब जगह, सब काल।
इसने बनवाकर मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर
ख़ुदा को कर दिया है बंद;
ये हैं ख़ुदा के जेल,
जिन्हें यह-देखो तो इसका व्यंग्य-
कहती है श्रद्धा-पूजा के स्थान।
कहती है उनसे,
"आप यहीं करें आराम,
दुनिया जपती है आपका नाम,
मैं मिल जाऊँगी सुबह-शाम,
दिन-रात बहुत रहता है काम।"
अल्ला पर लगा है ताला,
बंदे करें मनमानी, रँगरेल।
वाह री दुनिया,
तूने ख़ुदा का बनाया है खूब मज़ाक,
खूब खेल।"
जहाँ ख़ुदा की नहीं गली दाल,
वहाँ बुद्ध की क्या चलती चाल,
वे थे मूर्ति के खिलाफ,
इसने उन्हीं की बनाई मूर्ति,
वे थे पूजा के विरुद्ध,
इसने उन्हीं को दिया पूज,
उन्हें ईश्वर में था अविश्वास,
इसने उन्हीं को कह दिया भगवान,
वे आए थे फैलाने को वैराग्य,
मिटाने को सिंगार-पटार,
इसने उन्हीं को बना दिया श्रृंगार।