तुम्हारा दु:ख / मेरा दु:ख
कुछ है जो रोकता है
भीतर / बाहर
तुम्हें भी / मुझे भी
कुछ है जो दोनों को
एक साथ दोनों को
एक साथ चुभता है
और एक साथ ही
लहूलुहान होते हैं
दोनों के पैर
मैं अपनी चोट रेत मिट्टी के
पोर-पोर में रमाती हूँ
तुम धर देते हो अपना लहू
उजली चादर पर
मेरी पीड़ा चुपचाप भोगती है
ज़मीन...
हवाएँ सहमती हैं
पर दिशा नहीं बदलती
मैं भी सहज होने लगती हूँ
कि एक दिन ऊँची बुर्ज़ी से
फहराए जा रहे झंडे में
पैबंद की तरह
टंका देखती हूँ
तुम्हारा दु:ख
जिसकी छाया तले
सारा देश मौन बैठा है.