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अंदर कहीं उतरा हुआ / विजय वाते
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मुझ्क आँगन में दिखा पदचिन्ह इक उभरा हुआ
तू ही आया था यहाँ पर या मुझे धोखा हुआ
मेरे घर मे जिंदगी की उम्र बस उतनी ही थी
जब तलाक था नाम तेरा हर तरफ बिखरा हुआ
अब नजर इस रूप पर ठहरे भला तो किस तरह
है नज़र मे तू नज़र की राह तक फैला हुआ
क्या करूँ क्या क्या करूँ कैसे करूँ तेरा बयां
तो तो बस अहसास है अंदर कहीं उतरा हुआ