Last modified on 13 जून 2010, at 10:18

नीम के दो पेड़ / हरिवंशराय बच्चन

Tusharmj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:18, 13 जून 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


"तुम न समझोगे,

शहर से आ रहे हो,

हम गँवारों की गँवारी बात।

श्‍हर,

जिसमें हैं मदरसे और कालिज

ज्ञान मद से झुमते उस्‍ताद जिनमें

नित नई से नई,

मोटी पुस्‍तकें पढ़ते, पढ़ाते,

और लड़के घोटते, रटते उन्‍हे नित;

ज्ञान ऐसा रत्‍न ही है,

जो बिना मेहनत, मशक्‍क़त

मिल नहीं सकता किसी को।

फिर वहाँ विज्ञान-बिजली का उजाला

जो कि हरता बुद्धि पर छाया अँधेरा,

रात को भी दिन बनाता।

दस तरह का ज्ञान औ' विज्ञान

पच्छिम की सुनहरी सभ्‍यता का

क़ीमती वरदान है

जो तुम्‍हारे बड़े शहरों में

इकट्ठा हो गया है।

और तुम कहते के दुर्भाग्‍य है जो

गाँव में पहुँचा नहीं है;

और हम अपने गँवारपन में समझते,

ख़ैरियत है, गाँव इनसे बच गए हैं।

सहज में जो ज्ञान मिल जाए

हमारा धन वही है,

सहज में विश्‍वास जिस पर टिक रहे

पूँजी हमारी;

बुद्धि की आँखें हमारी बंद रहतीं;

पर हृदय का नेत्र जब-तक खोलते हम,-

और इनके बल युगों से

हम चले आए युगों तक

हम चले जाते रहेंगे।

और यह भी है सहज विश्‍वास,

सहजज्ञान,

सहजानुभूति,

कारण पूछना मत।


इस तरह से है यहाँ विख्‍यात

मैंने यह लड़कपन में सुना था,

और मेरे बाप को भी लड़कपन में

बताया गया था,

बाबा लड़कपन में बड़ों से सुन चुके थे,

और अपने पुत्र को मैंने बताया है

कि तुलसीदास आए थे यहाँ पर,

तीर्थ-यात्रा के लिए निकले हुए थे,

पाँव नंगे,

वृद्ध थे वे किंतु पैदल जा रहे थे,

हो गई थी रात,

ठहरे थे कुएँ परी,

एक साधू की यहाँ पर झोंपड़ी थी,

फलाहारी थे, धरा पर लेटते थे,

और बस्‍ती में कभी जाते नहीं थे,

रात से ज्‍यादा कहीं रुकते नहीं थे,

उस समय वे राम का वनवास

लिखने में लगे थे।


रात बीते

उठे ब्राह्म मुहूर्त में,

नित्‍यक्रिया की,

चीर दाँतन जीभ छीली,

और उसके टूक दो खोंसे धरणि में;

और कुछ दिन बाद उनसे

नीम के दो पेड़ निकले,

साथ-साथ बड़े हुए,

नभ से उठे औ'

उस समय से

आज के दिन तक खड़े हैं।"


मैं लड़कपन में

पिता के साथ

उस थल पर गया था।

यह कथन सुनकर पिता ने

उस जगह को सिर नवाया

और कुछ संदेह से कुछ, व्‍यंग्‍य से

मैं मुसकराया।


बालपन में

था अचेत, विमूढ़ इतना

गूढ़ता मैं उस कथा की

कुछ न समझा।

किंतु अब जब

अध्‍ययन, अनुभव तथा संस्‍कार से मैं

हूँ नहीं अनभिज्ञ

तुलसी की कला से,

शक्‍त‍ि से, संजीवनी से,

उस कथा को याद करके सोचता हूँ :

हाथ जिसका छू

क़लम ने वह बहाई धार

जिसने शांत कर दी

कोटिको की दगध कंठों की पिपासा,

सींच दी खेती युगों की मुर्झुराई,

औ" जिला दी एक मुर्दा जाति पूरी;

जीभ उसकी छू

अगर दो दाँतनों से

नीम के दो पेड़ निकले

तो बड़ा अचरज हुआ क्‍या।

और यह विश्‍वास

भारत के सहज भोले जनों का

भव्‍य तुलसी के क़लम की

दिव्‍य महिमा

व्‍यक्‍त करने का

कवित्‍व-भरा तरिक़ा।


मैं कभी दो पुत्र अपने

साथ ले उस पुण्‍य थल को

देखना फिर चाहता हूँ।

क्‍यों कि प्रायश्चित न मेरा

पूर्ण होगा

उस जगह वे सिर नवाए।

और संभव है कि मेरे पुत्र दोनों

व्‍यंग्‍य से, संदेह से कुछ मुसकराएँ।