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वर्किंग वूमन / परवीन शाकिर
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अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:00, 16 जून 2010 का अवतरण
सब कहते हैं
कैसे गुरुर की बात हुई है
मैं अपनी हरियाली को खुद अपने लहू से सींच रही हूँ
मेरे सारे पत्तों की शादाबी
मेरे अपनी नेक कमाई है
मेरे एक शिगुफ़े पर भी
किसी हवा और किसी बारिश का बाल बराबर क़र्ज़ नहीं है
मैं जब चाहूँ खिल सकती हूँ
मेरे सारा रूप मिरी अपनी दरयाफ्त है
मैं अब हर मौसम से सर ऊँचा करके मिल सकती हूँ
एक तनवर पेड़ हूँ अब मैं
और अपनी ज़रखेज़ नुमू के सारे इम्कानात को भी पहचान रही हूँ
लेकिन मेरे अन्दर की ये बहुत पुरानी बेल
कभी-कभी जब तेज़ हवा हो
किसी बहुत मज़बूत शजर के तन से लिपटना चाहती हैं