शैल विहंगिनी / हरिवंशराय बच्चन
मत डरो
ओ शैल की
सुंदर, मुखर, सुखकर
विहंगिनि!
मैं पकड़ने को तुम्हें आता नहीं हूँ,
जाल फैलाता नहीं हूँ,
पींजरे में डाल तुमको
साथ ले जाना नहीं मैं चाहता हूँ,
और करना बंद ऐसे पींजरे में
बंद हम जिसमें स्वयं हैं-
ईंट-पत्थर का बना वह पींजरा
जिसको कि हमने
नाम घर का दे दिया है;
और बाहर की तरोताज़ा हवाओं
और बाहर के तरल, निर्मल प्रवाहों
औ' खुले आकाश के अविरल इशारों,
या कहूँ संक्षेप में तो,
प्रकृति के बहु राग-रस-रंगी प्रवाहों से
अलग हमने किया है।
जानता मैं हूँ
परों पर जो तुम्हारे
खेलती रंगीनियाँ हैं,
वे कहाँ से आ रही हैं-
गगन की किरणावली से,
धरणि की कुसुमावली से,
पवन की अलकावली से-
औ' दरोदीवार के जो पींजरे हैं
बंद उसमें ये किए जाते नहीं है।
भूल मुझको एक
आई याद
यौवन के प्रथम पागल दिनों की।
एक तुम-सी थी विहंगिनी
मैं जिसे फुसला-फँसाकर
ले गया पींजरे में-
- "जानता तू है नहीं
मैं जन्मना कवि?
रवि जहाँ जाता नहीं है
खेल में जाता वहाँ मैं।
कौन-सी ऐसी किरण है,
किस जगह है,
जो कि मेरे एक ही संकेत पर
सब मान-लज्जा
कर निछावर,
मुसकरा कर
मैं जहाँ चाहूँ वहाँ पर
वह बिखर जाती नहीं है?
कौन-सा ऐसा कुसुम है
किस जगह है-
भूमि तल पर
या कि नंदन वाटिका में-
जो कि मेरी कल्पनाओं की उँगलियों के
परस पर विहँस
झर जाता नहीं है?
कौन-सी मधु गंध है
चंपा, चमेली और बेला की
लटों में,
या कि रंभा-मेनका-सी
अप्सराओं के
लहरधर कुंतलों में,
जो कि मेरी
भावनाओं से लिपटकर
आ नहीं सकती वहाँ पर
ला जहाँ पर
मैं उसे चाहूँ बसाना?"
बात मेरी सुन हँसी वह
शब्द-जालों में फँसी वह।
पींजरे में डाल उसको
गीत किरणों के,
अनगिनत मैंने लिखे
उसके लिए, पर
गंध-रस भीनी हुई रंगीनियाँ
उड़ती गईं उसकी निरंतर!
'स्वप्न मेरे,
बोलते क्यों तुम नहीं हो?
क्या मुझे धोखा रहे देते
बराबर?'
और वे बोले कि
- 'पागल
मानवी स्तर-साँस के
आकार जो हम,
पत्र, स्याही, लेखनी का
ले त्रिगुण आधार
पुस्तक-पींजरे में,
आलमारी के घरों में
जब कि होते बंद
रहते अंत में क्या?
सिर्फ़
काले हर्फ़
काले ख़त-खचीने!
और तू लाया जिसे है
वह प्रकृति के कोख से जन्मी,
प्रकृति की गोद में पतली,
प्रकृति के रंग में ढलती रही है।'
स्वप्न से श्रृंगार करने के लिए
लाया जिसे था,
अब उसी के वास्ते
एकत्र करता
सौ तरह के मैं प्रसाधन!
किंतु उनसे
गंध-रस भीनी हुई
रंगीनियाँ कब लौटती हैं?
स्वप्न की सीमा हुई मालूम;
कवि भी
ग़ल्तियों से सिखते हैं।
स्वप्न अपने वास्ते हैं,
स्वप्न अपने प्राण मन को
गुदगुदाने के लिए हैं,
स्वप्न अपने को भ्रमाने
भूल जाने के लिए हैं।
फूल कब वे हैं खिलते?
रश्मि कब सोती जगाती?
और कब वे
गंध का घूँघट उठाते?
तोड़ते दीवार कब वे?
खोलते हैं
पींजरों का द्वार कब वे?
बाकी बचा हुआ अंश जल्द ही अपलोड कर दिया जाएगा।