भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ना हो / विजय वाते

Kavita Kosh से
वीनस केशरी (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:56, 18 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय वाते |संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते;ग़ज़ल / वि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कब कहा है गलतियों कि कोई समझाइश न हो
आदमी के कद कि लेकिन रोज पैमाईश न हो

दीप यों ही जगमगाएं इस दिवाली की तरह
तीरगी की आपके जीवन में गुंजाईश न हो

चाहते हैं सब कि बदले ये अंधेरों का निजाम
पर हमारे घर किसी बागी कि पैदाईश न हो

हो अगर काबिल बहस जो मुद्दआ तो ठीक है
वरना यूँ ही बेवजह की जोर आजमाईश न हो

सब वही हैं फिर मुझे क्यूं यूँ लगा करता "विजय"
जैसे कुछ अपना नहीं हो एक भी ख्वाहिश न हो