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एक उदासी / मदन कश्यप
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एक उदासी फैलना चाहती है
बया के घोंसला-गुच्छ में
जहां हजारों चोचों के कलरव गूंज रहे हैं
एक उदासी पसरना चाहती है
कहवाघर की उस आखिरी मेज पर
जहां अब तक बची हुई है विचारों की गरमाहट
एक उदासी चिपकना चाहती है
बिस्मिल्लाह खां की शहनाई
और अमरूद अली खां के सरोद से
अजहरूद्दीन के बल्ले
और जिशान अली के रैकेट से
एक उदासी छा जाना चाहती है
हमारे समय के सारे सवालों पर
घुसना चाहती है
उस कील की घरघराहट में
जिस पर घूम रही है पृथ्वी
एकदम चुपके से उतरना चाहती है
हमारी बेचैन आत्मा में!