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प्रथम अहिंसक मानव बन तुम आये हिंस्र धरा पर / सुमित्रानंदन पंत

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प्रथम अहिंसक मानव बन तुम आये हिंस्र धरा पर,
मनुज बुद्धि को मनुज हृदय के स्पर्शों से संस्कृत कर!
निबल प्रेम को भाव गगन से निर्मम धरती पर धर
जन जीवन के बाहु पाश में बाँध गये तुम दृढ़तर!
द्वेष घृणा के कटु प्रहार सह, करुणा दे प्रेमोत्तर
मनुज अहं के गत विधान को बदल गए, हिंसा हर!

घृणा द्वेष मानव उर मे संस्कार नहीं हैं मौलिक,
वे स्थितियों की सीमाएँ हैं : जन होंगे भौगोलिक!
आत्मा का संचरण प्रेम होगा जन मन के अभिमुख,
हृदय ज्योति से मंडित होगा हिंसा स्पर्धा का मुख!

लोक अभीप्सा के प्रतीक, नव स्वर्ग मर्त्य के परिणय,
अग्रदूत बन भव्य युग पुरुष के आए तुम निश्वय!
ईश्वर को दे रहा जन्म युग मानव का संघर्षण,
मनुज प्रेम के ईश्वर, तुम यह सत्य कर गए घोषण!