भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वस्तुतः / भवानीप्रसाद मिश्र
Kavita Kosh से
पूर्णिमा वर्मन (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 21:32, 16 अगस्त 2006 का अवतरण (वस्तुतः moved to वस्तुतः / भवानीप्रसाद मिश्र: ग़लत शीर्षक के कारण)
लेखक: भवानीप्रसाद मिश्र
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
मैं जो हूँ
मुझे वहीं रहना चाहिए।
यानी
वन का वृक्ष
खेत की मेड़
नदी की लहर
दूर का गीत
व्यतीत
वर्तमान में
उपस्थित भविष्य में
मैं जो हूँ मुझे वहीं रहना चाहिए
तेज गर्मी
मूसलाधार वर्षा
कड़ाके की सर्दी
खून की लाली
दूब का हरापन
फूल की जर्दी
मैं जो हूँ
मुझे अपना होना
ठीक ठीक सहना चाहिए
तपना चाहिए
अगर लोहा हूँ
हल बनने के लिए
बीज हूँ
तो गड़ना चाहिए
फल बनने के लिए
मैं जो हूँ
मुझे वह बनना चाहिए
धारा हूँ अन्त: सलिला
तो मुझे कुएँ के रूप में
खनना चाहिए
ठीक जरूरतमंद हाथों से
गान फैलाना चाहिए मुझे
अगर मैं आसमान हूँ
मगर मैं
कब से ऐसा नहीं
कर रहा हूँ
जो हूँ
वही होने से डर रहा हूँ ।