भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शामिल होता हूँ / मलय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:57, 24 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मलय }} {{KKCatKavita}} <poem> मैं चाँद की तरह रात के माथे पर चि…)
मैं चाँद की तरह
रात के माथे पर
चिपका नहीं हूँ,
ज़मीन में दबा हुआ
गीला हूँ गरम हूँ
फटता हूँ अपने अंदर
अंकुर की उठती ललक को
महसूसता
देखने और रचने के सुख में
थरथराते पानी में
उगते सूर्य की तरह
सड़क पर निकला हूँ
पूरे आकाश पर नज़र रखे,
भाशःआ की सुबह
मेरे रोम-रोम में
हरी दूब की तरह
हज़ार-हज़ार आँखों से खुली है
ज़मीन में दबा हुआ
गीला हूँ गरम हूँ
मैं शामिल होता हूँ तुम सब में
डूबकर चलता हूँ
रचता हूँ उगता हूँ
भाषा की सुबह में।