शोख-सनकी सैलानी / मनोज श्रीवास्तव
शोख-सनकी सैलानी
सनकी सैलानी
फलांग जाएंगे
कांटेदार मौसमों की अभेद्य दीवारें,
सागर-महासागर
पर्वत-पठार,
पार कर जाएंगे
भाषाओं की भूलभुलैया,
लेकिन, पल भर
ठिठक जाएंगे वहाँ,
दहशतगर्दी बरसती होगी
मूसलाधार जहां
बारुदी छतों के नीचे
पूछेंगे तसल्ली से वे
सहजक्रोधी बाशिंदों से--
'अजी! कैसा है
तुम्हारे आवाम में
दहशतगर्दी का मौसम?'
तब, वे यह उत्तर पाकर
राहत की सांस लेंगे--
'कोई भीषण धमाका हुए
हफ्तों गुज़र गए हैं,
हां, एकाध घण्टे के अन्तर पर
पार्कों या चौराहों पर
भनभनाती मक्खियाँ सरीखी
गोलियाँ भर चल जाती हैं,
मलवों में खर्राटे भर रहा
कोई लावारिस बम
जग पड़ता है,
यह काहिल शहर
सुबह से शाम तक
कोई दर्ज़न-भर लाशें ही
उत्पादित कर सका है
और मंडराते अखबारनवीस बिचारे
किसी शानदार मानव बम की उम्मीद में
बडे उदास फिर रहे हैं
भीड़-भाड़ में,
सोच रहे हैं
कि निकम्मा अंडरवर्ल्ड
कितनी सुस्ती से विकास कर रहा है
सभ्यता का इतना धीमा विनाश कर रहा है!
पत्थरों पर इतिहास पढने वाले
धूल में पुराण सूंघने वाले
विदेशियों में अपने पुरखे देखने वाले
पुरातात्त्विक धूप सेंकते--
ये शोख शूरवीर सैलानी
बाज नहीं आएंगे अपने अनुभव पकाने से.