Last modified on 28 जून 2010, at 17:19

पतंग पर्व / मनोज श्रीवास्तव

Dr. Manoj Srivastav (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:19, 28 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> '''पतंग पर्व'…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पतंग पर्व
(विशेषतया, पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में मकर संक्रान्ति अर्थात 'खिचडी' के पर्व पर पतंग उडाने की परम्परा रही है। कवि के बचपन की कतिपय स्मृतियां इस पर्व के साथ जुडी हुई हैं। कवि की बाल्यावस्था का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा जौनपुर में गुजरा है।)

पतंग जूझती हैं
हवाई थपेडों से,
हमारी खुशियों की
गठरी लादे हुए
अपनी धागाई पीठ पर

पतंग बतियाती है
पंछियों से,
किसी गुप्त भाषा में
और हमारी दीवानगी की
खूब उडाती है खिल्लियां,
गुरूर-गुमान से
घुमाती हुई अपना सिर
इधर से उधर
देखती है
असीम आसमान
बहुत पास से,
बादलों की ओट में
लुकती-छिपती
फीके चांद पर
सिर रख
शेखी बघारती है
गहरी नींद में
सो जाने की
और हमें
अपनी ओझलता से
तरसाने की

लुभाती-ललचाती है,
चिढाती-चिलबिलाती है
मचल-मचल,
छपाक-छपाक उछल
सुदूर नभीय झील में
कि आओ!
अथक उडो
और छा जाओ,
छू लो हमें स्वच्छन्द
कलाबाजियां मारते हुए
दिशाहीन दिशाओं में,
छूट जाओ
धराजन्य बन्धनों से
क्षितिजीय सीमाओं से

हम आंखें फोड लेते हैं
उन्हें एकटक
देखते-देखते
और तब, वे टरटराती है
जैसे सावनी ताल-तलैयों के
दादुरी झुण्ड,
जैसे जम्हाती संध्या में
झींगुरों की झन-झन

खिलन्दडी पतंग
नहीं उतरती है खरी
हमारी डुबडुबाती
भावनाओं पर,
खूब लडती-झगडती है
अपनी दुश्मन पतंगों से,
छल-युद्ध करके
कभी मैदान छोड
भागने का बहाना बना करके
फिर, वापस टूट पडती है
अपने प्रतिद्वन्द्वी पर।

(रचना काल: फ़रवरी, १९९९)