भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पहाड़ खुश हैं - 1 / प्रदीप जिलवाने
Kavita Kosh से
Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:44, 29 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप जिलवाने |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> आदमी ने पहाड…)
आदमी ने पहाड़ बनने की खूब कोशिश की
परन्तु पहाड़ ने कभी नहीं बनना चाहा
कुछ और
पहाड़ खुश हैं पहाड़ होकर ही
जैसे नदी खुश है नदी होकर
आग खुश है आग होकर
मिट्टी खुश है मिट्टी होकर
और हवा खुश है हवा होकर
बस आदमी खुश नहीं है
सिर्फ आदमी होकर
आदमी पहाड़ भी होना चाहता है
नदी भी
आग भी
मिट्टी भी
और हवा भी
यहाँ तक कि ईश्वर भी।
आदमी की इच्छाएँ असीम हैं
आदमी को अपनी इच्छाओं के लिए
हमेशा जगह तंग पड़ती है
उसके लिए तो ये पृथ्वी-भी
अब पड़ने लगी है कम।
00