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जगती कहीं नहीं थी वहाँ / कर्णसिंह चौहान

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वहां हर ओर छाया था ईश्वर
हर तत्त्व में समाया था ईश्वर
उसकी एक धुंधली सी झलक से
नाच रहे थे वनपाखी
स्पर्श को लालायित देवदारु
स्वागत में पसरी धरा पर
प्रसन्न वदन दिनकर
जगती कहीं नहीं थी वहां
बस उसके अनुग्रह की माया थी ।

असीम वैभव बीच
बांसुरी का दिव्य राग
सरोवर के हिये में हलचल
नदियों की कलकल
चीड़ों की सांय सांय
भक्ति के भाव में बेसुध
एक लौ मंगल था
त्रिभंगी मुद्रा पर ढलका हुआ ।

अनंत कामना से जलती
मोम सी काया
विगलित आत्मरुप
अदृश्य में बदल गई
ऐहिक सुख कामना
बनी जन्मांतर की सखी
निर्ब्याज सौन्दर्य केलि में निमग्न
वहां बस राधा थी अपृथक भाव
सृष्टि कहीं नहीं थी वहां
बस अनवरत लीला थी ।