स्वपन स्पंदन चिर परिचित
कलियों की कोमल अंगडाई
कलरव करता जल नदिया का
उन्नत पर्वत की तरुणाई!
भीगे त्रिन, पल्लव,कुसुम गंध
लहराते वृक्ष विटप भारी
मदमाती यौवन क्षुदा लिए
लिपटी है तन पर अमराई!
विह्वल सागर उत्ताल नृत्य
देता अम्बर को ज्ञान नया
ऊँचा भी है सब अर्थ हीन
न हो किंचिद भी गहराई!
दल शतदल गुंजित भ्रमर राग
मन हर लेते है बार बार
कर शांत क्लांत मन की पीड़ा ..
देती है भवसागर उतार
हरि हर हर कहती हरितायी