भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समय के समक्ष ढलान पर मैं / मनोज श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
Dr. Manoj Srivastav (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:21, 30 जून 2010 का अवतरण
समय के समक्ष ढलान पर मैं
भीमकाय समय के कदमों पर
मैं खडा हूं
हां, खडा ही हूं
जमीन कोडता हुआ
और वह बरसों से वहीं खडा है
अपनी हथेलियों पर
भूत, भविष्य और वर्तमान
की तीनों गेंदें
बारी-बारी उछालते हुए
टप- टप टपकाते हुए
और मैं हूं कि--
ढलता ही जा रहा हूं
बुरी तरह ढलता जा रहा हूं