नशे में आदमी / हेमन्त कुकरेती
ख़ूब पीने के बाद
वह ख़ुद पर दया करता है
तब उसके देवता
उसे अकेला छोड़ देते हैं
लड़खड़ाता वह देखता है
अपना बीत चुका कल
जहाँ भी होता है वह
उसके साथ होते हैं उसके
अनेक अन्त
धुएँ में डूबने से पहले
वह डूब रहता है धुँधलके में
वहाँ होती है एक तीखी गन्ध
उसका दिमाग सुन्न करती
छा जाती है उस पर
उसके हाथ पर
उसके पैर
वह ख़ुद अपना साथ नहीं देता
रात तब चमकती है
उसकी बगल में
रोशनदान पर बसी
चिड़ियों की खुल जाती है नींद
वे तय नहीं कर पातीं कि भागें
या साथ दें उसके कोहराम में
सन्नाटा बढ़ता रहता है
उसके गिलास में
ज़रा-सी जो बची रहती है
वह चाहता है
बची रहे हमेशा के लिए
जब कि उसे पता नहीं चलता
कल कितना दूर है कल से
वह निढाल होने को होता है
और एक स्मृति
ढुलक आती है पसीने की तरह
उसके कपाल पर
वह काटकर फेंक देना चाहता है
अपनी उँगलियाँ
नसों से बहता ख़ून
अच्छा लगता है उसे
ऐसा करके वह
केवल जतलाना चाहता है
अपना डर
जिसे बाँटनेवाला कोई नहीं होता
शीशों को तोड़ता
वह फाड़ देता है कपड़े
कुछ आदिम शब्द गूँजते हैं
उसके कण्ठ में
खो जाते हैं कुछ अन्तरिक्ष में
वह रोने लगता है
ज़ोर से
कोई उस पर रोए या
हँसकर टाल दे
कठिन होता है फैसला करना
याद करने के लिए
उसके पास अगली सुबह
कुछ नहीं होता
सिवा इसके कि वह
भूलना चाहता था रात को कुछ
जो न जाने कहाँ गुम गया
उसकी नींद में