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कविता अब लिंग बदलेगी / ओम पुरोहित ‘कागद’
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अब
कविता
लग्र मंडपों
कोठों
आराध्यगाहों को
गीत नहीं होगी।
अब नहीं नाचेगी
अब नहीं थिरकेगी
किसी अबला की
पैंजनियों की धुन
तबलों की तान पर
ब्रहा्र की जायी कविता।
अब तोड़ेगी
भाषा के मजमे कविता
होगा झौंपड़ी से निकले
भावों का संचार यहां
मैली-कुचैली
कृषकाया कुटुम्बकम् के
बोल सुनायेगी कविता।
कविता अब
प्रयसी का श्रृंगार नहीं होगी
कविता अब
तख्त-ओ-ताज का
प्रचार नहीं होगी
सच बोलूं
कविता अब लिगं बदलेगी
यदि चूकेगी कहीं इस में
तो भी भाषा के दरबार में
शब्दों की तलवार हागी कविता।
कविता अब
शांति स्थल
शक्ति स्थल
और राजघाट के मुए सपने
नहीं दोहरायेगी
कविता अब खुद सक्षम है
अपने मान बतायेगी
कविता अब
अपने गान सुनायेगी।