भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिफरती रेत में / ओम पुरोहित ‘कागद’

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:21, 3 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>इस बार होगा जमाना धान से भरेंगे कोठार बाबा करेंगे पीले हाथ मेरे…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस बार होगा जमाना
धान से भरेंगे कोठार
बाबा करेंगे
पीले हाथ मेरे
यह सपने देखे थे
साल-दर-साल
पर हर साल
सब जीमता गया अकाल ।

इस बार
जब फिर सावन आया
आकाश में कुछ तैर आया
मैंने सपने
और बाबा ने बीज बोया
मगर इस बार फिर
वही हुआ
बाबा के बीज और मेरे सपने
झुलसती/ उफनती/ बिफरती रेत में
जल गए ।

अब
न बाबा के पास बीज हैं
न मेरे पास सपने
न आस/
न इच्छा ।