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थिरकती है तृष्णा (कविता) / ओम पुरोहित ‘कागद’
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थिर थार पर
थिरकती है तृष्णा
दौड़ता है मृग
जलता है जल
टलता है जल
मरता है मृग
फाड़-फाड़ दृग
रहती है तृष्णा
देखता है थार
पूछता है थार;
कौन है बड़ा,
मृग
तृष्णा
या फिर मैं
जो रहूंगा थिर ।