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सत्य का आभास / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
लगता है बहुत कड़ुवा
अन्तर के धूमिल सत्य का आभास,
क्योंकि मन तो हो गया है
युग-पुरानी परिधियों का दास।
संस्कारों के खड़ाऊ पहन कर
मन का पुजारी जा रहा है,
ताड़-पत्तों पर लिखी
किताबों की समाधि पर पहरा लगाने;
क्योंकि अब तो आत्मा की
हो गई बूढ़ी अवस्था ;
थम गई है
रग-शिराओं की रवानी,
जम गया है खून
जैसे पर्वती-सरिता
किसी हिमपात से ।
रह जाये ना
बिना अर्थ परिवर्तन,
मिट जये ना
कहीं मनुज की क्रियाशीलता,
इसलिये
हाथ में अब वह हरकत आ जाये
जो धरती की
व्याधि ग्रस्त परतें उधार कर
मिट्टी नई उलीचे,
नई बरखा का
पानी भिगो-भिगो कर
लोंदे नये बना दे,
नये-नये सांचों में
सजा सँवार कर
रूप नया ही दे दे
किसी निरूपम-निष्कलुष सृजन को!