उतर कहाँ से आये हैं ये / हरीश भादानी
उतर कहां से आये हैं ये
वह घर मुझे बता!
ऊपरवाले आसमान में
कभी न थमती
पिण्ड और ब्रह्माण्ड क्रिया को
समझ अधूरी
बता, इसे फिर समझूं कैसे?
किसी ओर से देखूँ
दीखे चका चौंध ही
है केवल अचरज ही अचरज,
फिर जानूं, पहचानूं कैसे ?
रचना के अनगिन रूपों में
इस क्षण तक तो
किसी एक को
अथ ही न आया
आखर की सीमा में,
ओ मेधापत!
तू इनका पहला प्रस्थान बता!
उतर कहां से आये हैं ये
वह घर मुझे बता!
मैं इनको इतना ही जानूं
ये सारे ही
लोकपाल हैं
इनके अपने-अपने लोक,
रमें गगन में
रमें जगत के
अचराचर में,
सुन रे रमणिये !
ऎसा रमना
आकर मुझे बता!
उतर कहां से आये हैं ये
वह घर मुझे बता!
सोचूं भी जो
मूलरूप
ये सारे ही एक
फिर इनका यह मूल रूप ही
कैसे-कैसे
होता रहे अनेक?
बुन-बुन खुलती
खुल-खुल बुनती
इन सबकी संरचनाओं का
कबिरा, सबब बता।
उतर कहां से आये हैं ये
वह घर मुझे बता!
वामन जैसा
एक प्रश्न यह
दीर्घतमस मैं नहीं अकेला
पूछे सब ज्ञानी-विज्ञानी,
अगर एक यह नही जाना तो
जा, जानते, मैं अज्ञानी,
क्या है इस कोसा के पीछे
सूत्रधार जी ।
परदा उठा दिखा!
वह सच मुझे बता!
उतर कहां से आये हैं ये
वह घर मुझे बता!