जीने के लिए / सांवर दइया
जीने के लिए
ऐसे भी तो जी सकते हैं यार-
सुबह जल्दी उठें
निबटें-नहाएं
चाय के घूंट और बीड़ी/सिगरेट के कश खींचें
उड़ती-सी नजर डालें अखबार पर
कहां-कितने-कैसे मरे
कल तो सौ थे, आज साठ हैं
चलो अच्छा है, चालीस कम मरे !
ऐसे में बज जाए नौ-साढ़े-नौ
अब जल्दी-जल्दी दो चार चपातियां ठूंसें
फिर चल पड़ें
ले छ्कड़ा साइकिल इक्कीसवीं सदी की अगवानी करने
कारों-स्कूटरों-टैम्पों की भीड़ चीरते
लड़खड़ाते-हांफते सुरक्षित पहुंचे दफ्तर
अटकी-भटकी जरूरी फाइल हो
कोई तो निबताएं
नहीं तो फिर कोई जल्दी नहीं है
इतने दिनों पड़ी रही तो एक दिन और सही
अब बीड़ी/सिगरेट फूंकें
उबासी खाएं
चाय का जुगाड़ करें
जो नहीं बैठा है बीच में
उसकी बीबी को लेकर कुछ किस्से बखानें
ऐसे में पांच तो बजेंगी ही बजेंगी
जेब और पहली तारीख के बीच
टांग अड़ाएं खड़ा
एक दिन और धड़ाम से गिरा देख खुश हो
उठाकर अपना वही छकड़ा
ढलान से उतरें, मकान में पहुंचे
(घर तो रहे ही कहां !)
बुद्धु-बक्से की बाहों में समाएं
फिर वही थाली
फिर वही बिस्तर
बीच-बीच में बजता खाली कनस्तर
बस, बहुत हुआ
अब चादर ओढ़
मुंह फेर कर सो जाएं
और ऐसे ही
किसी एक दिन चुपचाप मर जाएं !
कोई जरूरी नहीं है जीने के लिए
‘मुंगेरीलाल’ की तरह ह्सीन सपने देखना
‘फटीचर’ की तरह इमोशनल होना !
सिरफिरे हैं जो कहते हैं-
जीने के लिए सीने में
जरूरी है किसी आग का होना !