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चारबाग स्टेशनः प्लाटफार्म नं० 7–एक / वीरेन डंगवाल
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‘तुम झूठे ओ’
यही कह रही बार-बार प्लाटफार्म की वह बावली
‘शुद्ध पेयजल’ के नलके से एक अदृश्य बरतन में पानी भरते हुए
घण्टे भर से टोंटी को छोड़ा नहीं है उसने
क्या वह मुझसे कह रही थी
या सचमुच लगातार बहते हुए उस नल से ?
‘शोषिता व व्यभिचरिता’
जैसे मैल की परत परत लिपी हुई है
उसके वजूद पर
वह भी पैदा हुई थी एक स्त्री के पेट से
उसका भी घर होना था
अभी तो अअपना कण्टर बजाता
शकल से ही मुश्टण्ड
एक दूध वाला
जा रहा है उसकी तरफ
चेहरे पर शराब-भरी फुसलाहट लिए
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