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धूप सड़क की / हरीश भादानी

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धूप सड़क की नहीं सहेली

जब कोरे मेड़ी ही कोरे
छत पसरी पसवाड़े फोरे
छ्जवालों से छींटे मल-मल
          पहन सजे शौकीन हवेली

काच खिड़कियों से बतियाये
गोरे आंगन पर इठलाये
आहट सुन कर ही जा भागे
          जंगले पर बेहया अकेली

आंख रंग चेहरे उजलाये
हरियल दरी हुई बिछ जाए
छुए न संवलाई माटी की
          खाली सी पारात तपेली

सड़क पांव का रोजनामचा
मंडे उमर का सारा खरचा
सुख के नावें जुगों दुखों की
          बिगत बांचना लगे पहेली
धूप सड़क की नहीं सहेली