चाहों की थाली / हरीश भादानी
लोहे की नगरी में भैया
लोहे की नगरी में
फेरी वाला सायरन
हूंकता दस्तक देता
जड़े किवाड़ों
नींद झाड़ उठ जाती बस्ती
कस पांवों के पंेच
बिछाती जाती सड़कें
फाटक से परवाना लेकर
नाम टीपता
अपना नम्बर
उठा सलाम देखते ही
पहिये चल जाते
गा-गा बुनते सूत
सांस के तकुए
तान बिछाएं आंखें छापें
तहें संवारे जाएं थपिये
इतने पर भी
पुरजे जैसा
जिये आदमी
लोहे की नगरी में भैया
लोहे की नगरी में
पातालों की पर्त उघाड़े
उझक-उझक कर
कसी कुदाली
भरे फावड़ा हुआ निवाला
सुरसा नींवें
थप थप थाप सुलाएं
तोला-मासा
चूना-बजरी
रसमस-रसमस
गुंथ-गुंथ दोनों हाथ भरें
माथे पर रख लें
छैनी बैठी लिखे चिट्ठियां
और तगारी
बांसों की सीढ़ी थामे
ईंटें रख आए आसमान पर
और धूप को
चिढ़ा चिढ़ा कर
रंगती जाये कोरे चेहरे
ताम्बे के तन वाली कूची
पर हाड़-मांस की
ऊंचाई तो
घिसती ही रहती है
लोहे की नगरी में भैया
लोहे की नगरी में
धुआं भाग जाता चेबें भर
समय टीप कर
खाली टिफिन निकलता बाहर
संकेतों का
एक कथानक रच जाता है
आज बदल देने का
मौसम ओढ़े
सड़क सरक जाती गलियों में
घूम रही होती
ड्योढ़ी की धुरी थाम कर
प्रश्नों की
छोटी-सी दुनियां
खुली हथेली पर
दुख गिन देते लौटे कारीगर
जमती हुई नसों पर
फोहे-सा ठर जाता
भीगा आंचल
आंगन टांगे
खूंटी पर मजबूरी
और रसोई
तुतलाता कोलाहल आंज परोसे
कड़छी बजा-बजा
चाहों की थाली
लोहे की नगरी में भैया
लोहे की नगरी में