भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वे ही स्वर / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:36, 5 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीश भादानी |संग्रह=शहरीले जंगल में / हरीश भादान…)
वे ही स्वर वे ही मनुहारें
वही वही दस्तक ड्योढ़ी पर
वही वही अगवाता आंचल
वह आंगन
वे ही दीवारें
वही ख्याल खिलौने वे ही
वे मौसम वे ही पोशाकें
वही उलहना
वे तकरारें
वही लाज घेरें मृग छौने
सिके वही चंदोवा रोटी
वही निवाला
वे मनुहारें
वही वही हठियाये चेहरे
बहला लेती वही हक़ीक़त
वही गोद
वे सगुन उतारें
वही वही निंदियाये आंखें
थपके वही गोत सिरहाने
वे ही स्वर
वे ही हिलकारें
वही तक़ाजों का दरिया है
वही नाव है कोलाहल की
वे हिचकोलें
वे पतवारें
यह दुनियां यादों को दे दें
चुप का चौकीदार बिठा दें
क्या बतियायें
किसे पुकारें?