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छापता है पग-चिह्न / ओम पुरोहित ‘कागद’

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सांझ है
भूख है
प्यास है
फिर भी गांव व्यस्त है
सिर पर ऊंच कर घर
डाल रहा है उंचाला
छापता है पग-चिह्न
जो
मिट ही जाएंगे कल भोर में
नहीं चाहता
कोई चले इन पर
मगर
भयभीत है;
खोज ही लेंगे कल वे
ऐसे ही अकाल में
जैसे खोज लिए हैं आज
उसने
अपने बडेरों के पग-चिह्न ।