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उन्वान / वीरेन डंगवाल
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हवाएं उड़ानों का उन्वान हैं
या लम्बी समुद्र-यात्राओं का
पत्तियां
पतझड़ ही नहीं
वसन्त का भी उन्वान हैं
जैसे गाढ़ा-भूरा बादल वर्षा का
अंधकार उन्वान है
चमकीली पन्नियों में लिपटे हमारे समय का
गोकि उसे रोज दिखा-पढ़ा कर
ठण्डा किया जाता है क्रोध को
जो खुद एक अमूर्त महानता का सक्षम उन्वान है
एक अद्भुत प्रतीक्षा में
सम्भल कर हाथ लगाना होता है
आग के उन्वान को
वरना वह लील सकता है पूरे पन्ने को
जो या तो कोरा है
या हाशियों तक
उलट-पुलट भरा है
और हाथ !
वह तो आदमी का ऐसा उन्वान है
जो जहां रहे
अपनी हस्ती को झलकाता है अलग ही
उसके ही नीचे
नतशिर रह आई हैं
पूरी सभ्यताएं
और
आगे भी रहेंगी
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