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जी रहा मनुष्य / राजेश कुमार व्यास

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बहुत सारी परेशानियों
और
बहुत सारी दुविधाओं के मध्य
जी रहा है मनुष्य
यह क्या कम है,
कहीं स्टेनगन से
निकलती गोलियां
तो कहीं
बम के धमाकों की आवाज
फाड़ देती है कानों के परदे
और
लगाती है ठहाका
जीर्ण-शीर्ण होते व्यक्ति की
बेबसी पर
फिर भी-
जी रहा है मनुष्य
यह क्या कम है,
कहीं
भरी हुई मांग
सूनी कर दी जाती है
और
तोड़ दी जाती है
हाथों में सजी चूड़ियां
आंतकवादियों की गोलियों से
फिर भी-
जी रहा है मनुष्य
यह क्या कम है,
कहीं
मासूम चित्कारें
बिंध देती है मां के कलेजे को
और
बेबस नैन
लाचार हाथ
उठने लगते हैं सहायता की उम्मीद में
परन्तु
सहायता नहीं मिलती
फिर भी
जी रहा है मनुष्य
यह क्या कम है,
इन सभी बातों के साथ
मृत्यु का मातम
और
कभी कभी हर्ष के
गीत गाता मनुष्य
स्वांग की सरगम पर
अपना मन बहला रहा है
यह क्या कम है,
बगैर कुछ करे ही
बहुत सी निराशाओं के मध्य
आशाओं के दीप
जलाए बैठा मनुष्य
इन्तजार में है
एक नवीन सुख की सूबह में
यह क्या कम है