भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हाथ पकड़कर अनुज को अपने / भावना कुँअर
Kavita Kosh से
41.220.12.34 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 00:35, 3 मई 2007 का अवतरण
रचनाकार: भावना कुँअर
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
हाथ पकड़कर अनुज को अपने, जो चलना सिखलाते हैं
वही आदमी जग में सच्चे, दिग्दर्शक कहलातें हैं।
ठोकर लगने पर भी कोई, हाथ बढ़ाता नहीं यहाँ
सोचा था नन्हें बच्चों के, पाँव सभी सहलाते हैं।
नन्हें बोल फूटते मुख से, तो अमृत से लगते हैं
मगर तोतली बोली का भी, लोग मखौल उड़ाते हैं।
खुद तो लेकर भाव और के, बात सदा ही कहते हैं
ऐसा करने से वो खुद को, भावहीन दर्शाते हैं।
हैं कुछ ऐसे उम्र से ज्यादा, भी अनुभव पा जाते हैं
और हैं कुछ जो उम्र तो पाते, अनुभव न ला पाते हैं।