भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सो गया हूँ / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:20, 7 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>ओ कवि! तुम ने ही तो कहा था रेशम का गदरा है यह मरुधरा। इस पर देव रमन…)
ओ कवि!
तुम ने ही तो कहा था
रेशम का गदरा है
यह मरुधरा।
इस पर देव
रमने आते है
सुरगों को भी सरमाती है
यह हेमाणी धरा।
इसी कथन के वशीभूत
यदि मै
सो गया हूं
समय को सरहाने रख
तो तूं क्यों कोसता है
मुझ अकाल को
मुझे भी करने दे आराम
सुस्ताने दे
कुछ दिन
सुबह शाम
इस मनभावन मरुधरा पर।