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बची रह सके आस / ओम पुरोहित ‘कागद’

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सूने-सूने पड़े
खेत की कांकड़ में धुस
सोचता है नथिया;
डाब-डचाबड़ी ही सही
कुछ तो हो जाए हरा
जिस को देख
धोक लूं स्यावड़
ताकि
बची रह सके आस।

यदि इसी तरह
सूखता रहा
सब कुछ
तो फिर
उस आस्था का क्या होगा
जो बरसों रही है
मरुधरा के पास ।