Last modified on 10 जुलाई 2010, at 20:08

तुम क्यों नाथ सुनत नहिं मेरी / भारतेंदु हरिश्चंद्र

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:08, 10 जुलाई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम क्यों नाथ सुनत नहिं मेरी।
हमसे पतित अनेकन तारे, पावन है बिरुदावलि तेरी।
दीनानाथ दयाल जगतपति, सुनिये बिनती दीनहु केरी।
’हरीचंद’ को सरनहिं राखौ, अब तौ नाथ करहु मत देरी॥