भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहरी चाल प्रकृति की / ओम पुरोहित ‘कागद’

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:34, 15 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>मेरा और उन का घर आमने सामने है उनके यहां पैदा होने वाला अमीर कहल…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरा और उन का घर
आमने सामने है
उनके यहां पैदा होने वाला
अमीर कहलवा लेता है
लेकिन
मेरे यहां तो
फिर से ‘मैं ’ ही पैदा होता हूं;
कोई बिड़ला
क्यों नही पैदा होता है ?

उनके सुपुत्र
जवानी से पहले ही
ऎय्याश हो लेते है
कारों में घूम कर
मखमल पर सो लेते है।
मेरा धनियां
दिन भर की मेहनत के बाद भी
भूखा क्यों सो जाता है ?
धनराज से हो लेता है धनिया
और वो क्यों
एक साथ
आगे पीछे
दो-दो अलंकार प लेता है ?

उनका कुत्ता
जिसे सूंघ कर छोड़ देता है,
मेरा धनियां
उसी को हंस कर
क्यों खा लेता है ?
क्यों ? आखिर क्यों ?

क्यों ?
गुलाब में कांटे लगते है।
यह क्या झूठ है ?
यदि नहीं, तो
प्रकृति दोहरी चाल-
क्यों चल लेती है ?
गुलाब पर गुलाब
कांटे पर कांटा
क्यों नहीं जड़ देती ?
उसकी सभी रचनाएं
समान हो लेती।
मेरा धनराज हो जाता धनियां,
उसका धनराज
‘श्री’ और ‘जी’ द्वारा
संरक्षित हो जाता, तो-
मुझे दु:ख न होता।