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इंडिया गेट पर एक शाम / मनोज श्रीवास्तव

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इंडिया गेट पर एक शाम
(स्वतंत्रता-सेनानियों के भूतों के साथ)

भूतों के प्राकट्य पर
संध्या--
दिन के उत्सवों को
निचाट कक्ष में बंद कर
चाबियों का गुच्छा अंटी में दबा
इत्मिनान से रात में
समाने चली जाती है,
उदास भूत और कहीं नहीं
यहीं मिलते हैं--दम साधे हुए
न चुहुलबाजी में गाल बजाते हुए
न चहलकदमी करते हुए
न ही हवाई कलाबाजियां मारते हुए,
चुपचाप पनीली आंखों से
गुलामी का गम बहाते हुए
और हवा की सेज पर लेटे हुए
खुद से फुसाफुसाते हुए कि--
हमने खून से आजादी को सींचा था,
सोचा था इस छायादार पेड के नीचे
अमन-चैन की बयार बहेगी
साफ-सुथरी आबोहावा में
हथियारों की फसलों के बजाय
गुच्छेदार गुलदार इंसानियत वाले
आदमी उगेंगे,
गुमसुम भूतों की सफेद आंखों में
अफसोस के बादल घुमडते हुए
इंडिया गेट के ऊपर पसर जाते हैं
जैसे जनाजे को कफन से ढक दिया गया हो
आखिर, ऐसा आलम क्यों हैं,
भूत खुश क्यों नहीं हैं
चुनिन्दा बडे लोगों से
जो कमसिन आजादी को नंगी कर
उसे भरपूर भोग रहे हैं
इस बात से बेफिक्र होकर कि
उन्हें शुक्रगुजार होना चाहिये भूतों का
जिन्होंने इस योनि से पहले
इस बच्ची को फिरंगी व्यभिचारियों से
निजात दिलाया था

बेशक! आजादी के खबरनामचों से
भूत पीडित क्यों हैं
वे हर बात पर
और मायूस क्यों हैं
जबकि आजादी के मिसाल बने
धर्माधीश, सियासतदार और सामाजिक गुर्गे
आजादी के साथ
वो सब कर-गुजर रहे हैं
जो जनसाधारण
आजादी का मतलब समझने तक
नहीं कर पाएंगे.