भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सतपुड़ा के महाजंगल / शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
Kavita Kosh से
Shubham katare (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:54, 19 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: सतपुड़ा के महा जंगल थे कभी गए कहाँ जंगल घटे जंगल कटे जंगल माफ़ियो…)
सतपुड़ा के महा जंगल थे कभी गए कहाँ जंगल घटे जंगल कटे जंगल माफ़ियों में बटे जंगल अए लकड़ चोरों बताओ बेच आए कहाँ जंगल
इन वनों के गए भीतर दिखे मुर्गे और न तीतर पन्नियाँ ही पन्नियाँ बिखरी पड़ी थी उस ज़मीं पर कहाँ गए वे हिरण कारे खा गए इंसान सारे शेर चीते लकड़बग्घे गाँव में छुपते बेचारे साँप अजगर थे घनेरे ले गए उनको सपेरे तमाशा दिखला रहे हैं शहर में सायं सबेरे नाम के ये रहे जंगल सतपुड़ा के महा जंगल
घुस न पाती थीं हवायें रोक लेती डालियाँ अब वहाँ ट्रक घुस रह हैं और टेक्टर ट्रालियाँ फूल पत्ते फल न छाया दूर तक कुछ नज़र आया जानवर की जगह हमने आदमी हर जगह पाया ले चलो हो जहाँ जंगल सतपुड़ा के महा जंगल
गौड़ भील किरात काले मोबाइल को गले डाले धूप का चष्मा लगाए घूमते वे पेंट वाले तुंबियों की जगह संग में प्लास्टिक के बैग धरते ट्रांज़िस्टर लिए फिरते और डिस्को डांस करते ढोल इनके गुम गए हैं बोल इनके गुम गए हैं कोका कोला पेप्सी के साथ रम में रम गए हैं अखाड़े से हुए जंगल सतपुड़ा के महा जंगल