भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूरज का फ़व्वारा-4 / इदरीस मौहम्मद तैयब

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:08, 21 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=इदरीस मौहम्मद तैयब |संग्रह=घर का पता / इदरीस मौह…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूरज का फ़व्वारा चुपके से खिसक लेता है
मेरे शरीर को सुख के चटखारों में छोड़
मेरी कोठरी सपने के सामने
अपनी दीवारों को नंगा कर देती है

लेकिन मेरे भीतर तुम्हारी मौजूदगी
सब ख़ुशियों का रास्ता है
जो किसी क़ैद से नहीं डरता
तुम तक पहुँचने के लिए बनता है मेरा वाहन

मैं स्वप्न तट की ओर भागता हुआ
तुम्हारे बारे में पूछता हूँ
समुद्र दबा लेता है अपनी हँसी
जब वह तुम्हें यों
सन्नाटे में खिसक कर
अपने हाथों से मेरी आँखों को
ढँकते हुए देखता है

मुझे मालूम है तुम एक ऐसा
सूरज हो जो कभी नहीं ढलता
और
तन्हाई में एक क़ैदी तब्दील हो जाता है दो क़ैदियों में
पहरेदार होने के बावजूद ।


रचनाकाल : 26 जनवरी 1979