दपने, रग और सन्नाटे / गोबिन्द प्रसाद
बहुत दूर से मैंने तुम्हें देखा
कहीं कोई न था
दूर-दूर तक
चारों ओर अभी अँधेरा था
आर्द्रता की एक आसमानी चादर-सा
पार्वती-आँचल की क्रोड में शिशु-स्वर-सा मैं
तुम्हें देखता हूँ-अकस्मात दूर प्राची के पार्श्व में प्रकाश
भोर के तारे की तरह तुम्हें देखता रहा
फिर जब तुमने मेरी तरफ़ रुख़ किया तो
ज्योति के जल-प्रपात फूट पड़े सहसा
स्वर्णिम आभा लिए
फिर तुम...इतने क़रीब आ गयीं
कि सारी भाषाओं के रंग
और उनमें समायी चेष्टाएँ भी बेमानी हो उठीं
ज्योति का वह प्रपात झरता रहा अनिवार
फिर,बहुत क़रीब से मैंने तुम्हें देखा
नाटक के किसी अन्तिम दृश्य की तरह
अँधेरे के रंगों में विलीन होते हुए
कि तुम किसी नेपथ्य से उठते हुए करुण संगीत की तरह थीं
कि तुम्हारे और मेरे बीच सिसकता हुआ कुछ
नकहे रिश्ते की तरह काँपता रहा देर तक
आख़िर सन्नाटे की ये ज़ंजीरें कब तक बजती रहेंगी
काश! इन सन्नाटों को कोई रंग मिलता
बहुत से लोग आये और चले गये
रंगों की भाषा से मायूस होकर
फिर देखा
तुम्हारे भीतर सन्नाटे की ग़ार से निकलता हुआ
मैं रंगों से आसमान का माथा लीपता हूँ
बादलों में खड़ा हूँ बिना पाँव
तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ मैं
बोलने के लिए ख़ूब ज़ोर लगा रहा हूँ
लेकिन आवाज़ नहीं निकलती
ओह! बिखर गये सपने,सारे रंग और सन्नाटे!