भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुटुम्ब के आने पर घर / निलय उपाध्याय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:50, 23 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निलय उपाध्याय |संग्रह=}} {{KKCatKavita}} <poem> दीदी भाभी के घ…)
दीदी भाभी के घर में सो जाएँगी
भईया छत पर, बाबूजी को भी वहीं आराम होता
पर कोई तो होगा, कुटुम्ब के साथ
वे सो रहेंगे
मम्मी के बॅसखट पर
मुर्गा पकाने की तकनीक होगी
सब्जी में, कड़ाही में तैरकर फूल जाएँगी पूड़ियां
खुल जाएगा मुँह
अचार के ठस्स भरे मर्तबान का
चौका जमेगा
सजेगा पीढ़ा
सब कुछ दिखेगा सबसे अच्छा
किसी को पता नहीं चलेगा कि घर में
घर के लोगों के लिए नहीं बची जगह
एक पत्थर
ख़त्म कर देता है नदी का संतुलन
पत्थरों की बारिश में कहाँ टिकेगा घर
ऊपर से आ ही जाते हैं कुटुम्ब वाले
किसी को नहीं पता
बाहर के कमरे में,
जहाँ उखड़ गया है दीवार का पलस्तर
बहुत करीने से चिपका है मुस्कराता हुआ तेन्दुलकर।