भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ फुटकर शेर / मधुरिमा सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:23, 25 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुरिमा सिंह |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <poem> '''1. तपती रेत प…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1.
तपती रेत पर चलते-चलते, मीलों बस तन्हाई मिली ।
हमको तो पानी से ज़ियादा, पानी की परछाईं मिली ।।
2.
एक चिड़िया जो उड़ी, फूल झरे ओस झरी ।
ज़िस्म हर शाख़ का, रह-रह के बहुत थर्राया ।।
3.
आम की चटनी, धुली दाल और रोटी गरम-गरम |
अम्मा ने चूल्हा सुलगाया, कई बरस के बाद ।।
4.
आया जो तेरा गाँव तो, उतरा नहीं गया ।
पैरों में फँस के रह गई, डोरी रकाब की ।।
5.
मैं क्या बताऊँ अभी कौन पास से गुज़रा ?
हर एक चेहरा ही तुझ-सा दिखाई देता है ।।
6.
मैं जान लूँगी साधना स्वीकार हो गई ।
जब उनकी आँख में मेरा चेहरा दिखाई दे ।।
7.
धुआँ-धुआँ है शहर, आग-आग आँखें हैं ।
वो एक शख़्स तो हँसता दिखाई देता है ।।
8.
ज़िन्दगी के हर वरक़ पर हर ग़ज़ल तुझ पर लिखी ।
और क्या लिक्खेगा कोई, मुझसे दीवाने के बाद ।।
9.
नहीं इसका डर कि दुनिया मेरा दर्द जान लेगी ।
मेरा गीत गाने वाले तेरे होंठ जल न जाएँ ।।