Last modified on 27 जुलाई 2010, at 04:39

आज हवाओं में जहर फैल रहा / सांवर दइया

Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:39, 27 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>आज हवाओं में जहर फैल रहा। आदमी के होते यह बेजा हुआ। अंधेरों की ब…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आज हवाओं में जहर फैल रहा।
आदमी के होते यह बेजा हुआ।

अंधेरों की बात कोई नयी नहीं,
यह दौर तो है अपना देखा हुआ।

अब जरूरत नहीं दलील देने की,
जानते पांसा किसका फेंका हुआ।

आपके भेजे फल चखे प्यार से,
आज पूरी बस्ती को हैजा हुआ!

आग लगी है तो अब किसे जगायें,
हर कोई करवट बदल लेटा हुआ!